Tuesday, September 30, 2008

खिड़की के पास वाला पेड़

रात के चौथे पहर
अंधेरे में
तन कर खड़ा वह पेड़ ,
यौवन से आप्लावित
मानो प्रतीक्षा में
प्रेयसी की।
निर्भीक , निश्चिंत
हवा के झोकों संग हिलता
न हो उतरा नशा
मानो अभी तक
रात की मदिरा का।
मद्धम चाँदनी में
पत्तियों पर चमक रहीं
बारिष की हीरक बूँदें ,
श्रम के स्वेदबिंदु।
उषा के साथ
आएगी पहली किरण
लिपट जाएगी उसके अंग-अंग से।
महक उठेगी
उसे छू कर
प्रात समीर।
उजाला उसके स्पर्श से
हो जाएगा
मुलायम, मखमली।
मेरी खिड़की से झाँक
उसकी टहनी
फ़िर टोकेगी मुझे
की उठो !
आगया एक और प्रभात
जीवन में।
चलता रहेगा यह क्रम
निरंतर
खिड़की के पास वाला पेड़
लुटाता रहेगा स्नेह
हम पर अनवरत।
दुआ करो
बचा रहे उसका अस्तित्व
हमारी दिन-ब-दिन वृद्धिमान
लालसा की कुल्हाड़ी से।

Thursday, September 25, 2008

दहशतगर्द

तुम
स्कूल जाते बच्चों के
बस्तों में
भर दोगे बारूद
परियों की कहानियों वाली
किताबों की जगह।
उनके नन्हे-मुन्ने हाथों में
पकड़ा दोगे
बंदूकें,
कलम की जगह ।
इमले की जगह
उनकी तख्ती पर
लिख दोगे इबारत
आतंक की।

तुम नोच लोगे
रंग
हर तितली के पंख से।
हर फूल की खुशबू को
बदल दोगे
सड़ांध में ।

तुम्हारे पैरों की आहट
हर संगीत को
तब्दील कर देगी
मरघटी सन्नाटे में।

प्रेम और संवेदना का
हर रिश्ता
बदल जाएगा
घृणा की बजबजाती कीचड़ में
तुम्हारे शापित स्पर्श से

तुम
नफ़रत की आग में
जला कर रख दोगे
हर फूल को
हर पत्ते को
हरियाली के एक एक रेशे को।

तुम हो दुश्मन
सुन्दरता के,
रचनात्मकता के,
प्रेम और जीवन के ,
और जीवन में जो कुछ है सुंदर
उस सब के।

तुम
छोड़ जाओगे
अपने
पीछे बस
धुएँ और धूल का गुबार
क्षत-विक्षत लाशें और
सडकों पर बिखरा
मासूमों का लहू

तुम
मज़हब के ,
धर्मयुद्ध के
नाम पर
बदलने में लगे हो
धरती को नर्क में ।
फरिश्तो के वेश में
तुम हो
नुमाइंदे शैतान के ।

खर-पतवार की तरह
एक दिन
तुम भी
उखाड़ कर फेंक दिए जाओगे।
मत भूलो कि
आए हैं तुम जैसे पहले
और भी
ध्वंस और नफ़रत की
लहरों पर सवार
पर मिट गए है सब
टकरा कर
मानवता की चट्टानी
जिजीविषा से

दोस्त
जल जाओगे
तुम भी एक दिन
अपने ही नर्क में
पड़े इतिहास के किसी
कूडेदान में।
और बहाएगा नहीं
कोई दो आंसू भी
तुम्हारे लिए।


Tuesday, September 23, 2008

विस्मृति

पूर्वज,
चौराहों पर लगे,
कौओं और कबूतरों की
बीट से लिथड़े
तुम्हारे बुत।
तुम्हारी विस्मृति के
स्मृति-चिह्न ।

Sunday, September 21, 2008

इन्द्र धनुष

मुंडेर से उतर कर
धूप
बरांडे के
दूर वाले छोर पर
अटक जाती है।
न जाने क्यों ?
घिर जाता है मन
एक उदास खामोशी से।

सुगन्धि का एक वलय
तैर जाता है
आंखों के आगे
यादों का इन्द्र धनुष
खिंच जाता है
मन के एक सिरे से
दूसरे सिरे तक।

एक बच्चा भागता है
कटी हुई पतंग के पीछे।
तितलियाँ सी उड़ती है
आंखों में,
लहरा उठता है
एक आँचल गुलाबी,
या फ़िर शायद धानी
............सुनहरा
सबकुछ गड्मड।
आँचल की एक कोर
फंसी रह गई है
मन के किसी कोने से।

टप
बारिस की एक बूँद
भिगो गई हथेली ।
घिर आया सावन
यादों का।
अपनी किताबें
किए सर के ऊपर
बारिस से बचने को
गुलमुहर तक चली आई
वह लड़की।
जब घूरते हुए उसे
बेवकूफों की तरह
पूछा था मैंने कुछ ऐसे ही।

कैफिटेरिया में उस दिन
ठंढ से कुड़मुड़ाते जब वह
पी गई थी बची हुई काफ़ी
मेरे प्याले की ,
अनजाने में या शायद
जानबूझ कर।
और फ़िर बिखर गई थी
हमारे चारो ओर
एक सिन्दूरी आभा।

स्मृतियों के सूत्र
खिसकने लगते हैं
मुट्ठी से ,
चाहे कितना कस कर पकडो।
जीवन पहुँच जाता है
कहीं से कहीं।

मुंडेर पर की धूप
कब की
बरांडे से सरकती
दूर चली गई है
उदासी की एक चादर
अपने पीछे छोड़ कर।

Tuesday, September 16, 2008

आम आदमी की कविता

वह अधनंगा,
मरियल सा आदमी
जो अभी-अभी
तुम्हारी विदेशी कार के
नीचे आते आते बचा है।
और जिसके बारे में
सोच रहे हो तुम
कि क्यों बनाता है ऊपर वाला
ऐसे जाहिलों को,
नहीं है जिन्हें तमीज
ठीक से सड़क पर चलने तक की।
या फ़िर सोच रहे होंगे कि
बेवकूफ मरेगा अपनी गलती से
और दोष मढ़ जायेगा
तुम्हारे सिर।

मगर दोस्त
तुम हो परेशान नाहक ही
उसने तो जरूरी नहीं समझा
पलट कर देखना तक।
न ही दी तुम्हे गालियाँ
मुंह बिचका कर।
उसकी नज़र में हो तुम
अस्तित्वहीन।
तुम्हारी चमचमाती कार
कहीं नहीं है
उसकी प्राथमिकताओं में।
उसे जल्दी है जा कर सींचने की
मुरझा रहे पौधों को।
दूहनी है गाय
दुलारने है बछडे।

नहा कर जल भी देना है
नहीं तो
रह जायेगे प्यासे ही
बरगद के नीचे भोले बाबा।

नहीं देख पायेगीं
रात की शराब और
डिस्को की चकाचौंध रौशनी से
चुन्धियाई तुम्हारी आँखें
यह सत्य कि
बची है जो कुछ तहजीब,
संस्कृति और सम्मान,
इंसानियत और कर्तव्यनिष्ठा,
वह मरियल आदमी
उसका वाहक है।

उसने नहीं है खाया
कमीशन किसी सौदे में,
नहीं किया है कोई घोटाला।
वह नहीं रहा है शामिल
किसी धरने, जुलूस और दंगे में।
नहीं तोडा है उसने
कोई पूजागृह।
उसे नहीं आकृष्ट करते
तुम्हारे क्लब और माल।

वह तो बस
अपना खून पसीना एक कर
देश की माटी में,
जुटा है जोड़ने में
एक-एक ईंट
ताकि हो सके पथ निष्कंटक
आने वाली पीढियों का।
ताकि मिट सके
भूख, बिमारी, गरीबी और जहालत,
ताकि बन सके देश फ़िर से
महान।
ताकि सहूलियत से
दौड़ती रहे
तुम्हारी चमचमाती कारे।




Friday, September 12, 2008

एक ग़ज़ल मेरे शहर के नाम

आख़िर बदइंतजामियों की कोई इन्तिहाँ तो हो।
मेरे शहर के हाल पर कोई तप्सरा तो हो।

गड्ढों में सड़क गुम हैं, सीवर उफ़ान पर,
हाकिम को इंतज़ार कोई हादसा तो हो।

बदलेगा ये निजाम भी हर दौर की तरह,
सीनों में आग, जेहन में कोई जलज़ला तो हो।

टकरा के टूट जायेगी शमशीर हो कोई,
पत्थर से हौसले हों, ख़ुद पे भरोसा तुझे तो हो।

तौबा तेरे ज़माल की जादूनिगारियाँ ,
क्या दूँ मिसाल तुझसा कोई दूसरा तो हो।

हमने भी जीना सीख लिया है तेरे बगैर,
आख़िर कहीं पे ख़त्म ऐ भी सिलसिला तो हो।

Wednesday, September 10, 2008

नई तहजीब

नंगापन
नया मंत्र है
सभ्यता का।
स्वतंत्रता और स्वच्छंदता
हैं गडमड।
विचार करना है पिछड़ापन
सोचना छोड़ो।
कपड़े उतार डालो
अपने नहीं तो दूसरों के।
नंगे हो जाओ
यही है आज की मांग।
नंगापन
विचार में,
भाषा में,
व्यवहार में
बाज़ार का ताकाज़ा है।

बाज़ार
जो नई सदी का देवता है।
जिसके दबाव में
हैरीपॉटर की काल्पनिक त्रासदी
और ब्रितानी स्पीयर्स के कौमार्य
की चर्चाओं के बीच
ख़बर नहीं बन पाती
भूख से
हजारों अफ्रीकन बच्चों की मौत।

भावनाएं बंधन हैं,
काट फेंको।
नंगे होकर ही
बिक सकोगे तुम,
माल की तरह।
संकोच छोड़ो ,
उतार डालो
अपनी आत्मा पर पड़ा
हर आवरण।
वास्तु बन जाओ।
स्वयं को तब्दील कर लो
केवल शरीर में।
मन और आत्मा की छोड़ो।

शरीर ही धुरी है पृथ्वी की
जो घूमती है
बाज़ार के चारो ओर,
सीख लो भूगोल का
यह अधुनातन सिद्धांत।
उद्दाम भोग के महायज्ञ में
होम कर दो स्वयं को।
इसी से होगा प्राप्त
आधुनिक निर्वाण।

जानवरों की चाहारदीवारी से निकल
मनुष्यता की चौखट तक
आने में लगे हों भले
हजारों साल।
बन जाने में पशु
लगेगा नहीं समय कुछ भी
सहस्त्राब्दियों के बंधन काट
हम हो जायेगे आधुनिक
चुटकियों में।
विचित्र है माया
बाज़ार की।

Tuesday, September 2, 2008

शब्द सन्दर्भ

शब्द
सांत्वना और संवेदना की
रसधार से संपृक्त
स्नेह और पीड़ा के
आदिगीत,
मास्टर जी की बेंत
और अम्मा की लोरी से
अभिमंत्रित,
सीपियों और कंचों से निर्मल
जगमग शब्द।
प्रेमपत्रों से आती
मेहंदी की सुगंध
मन-आँगन में खिले गुलमुहर।
नानी की कहानियों की
राजकुमारी जैसे
सुंदर थे शब्द।

फ़िर मैंने शब्दों में
घोल दिए
शास्त्र और दर्शन
ज्ञान और विज्ञान
सांख्य और योग के तर्क
गुरुत्व और सापेक्षता के सिद्धांत
राजनीति और अर्थनीति
विचार चेतना की समिधा से
गढ़ लिए हथियार।
आवाजों के रौरव से
टपकता तेजाब
शापित अखबारों के
अंतहीन पन्नों पर बिखरे
मृत्यु और ध्वंश के संदेशवाहक
ईसा की सलीब में ठुकी हुई
कीलों से निर्मम ,
नानी की कहानियों के राक्षस सदृश
भयानक हो गए हैं
शब्द।