गाँव में
अब बच्चे नहीं खेलते
गुल्ली डंडा, कबड्डी, छुप्पा-छुप्पी
अब वे नहीं बनाते
मिट्टी की गाडी
नहीं पकड़ते तितलियाँ
गौरैयों और कबूतरों के
घोंसलों में देख उनके बच्चों को
अब वे नहीं होते रोमांचित
अब उन्हें रोज नहीं चमकानी पड़ती
लकड़ी की तख्ती
ढिबरी की कालिख से मांज कर
और न ही उस पर बनानी पड़ती हैं
दूधिया सतरें खड़िया से
और अब वे नहीं रटते
पहाड़े
दो दूनी चार...
क्रिकेट, टीवी, कंप्यूटर
मोबाइल और सोशल मिडिया
के युग में,
खपरैल की जगह
स्कूल की पक्की इमारतों
और अंग्रेजी के पैबंद के
बावजूद
क्यों लगता है कि
इन बच्चों के लिए
हम
नहीं तैयार कर पा रहे
वह ठोस जमीन
जहां बैठ
वे बुन सके सपने
भविष्य के
खड़े हो कर जिस पर वे
उड़ सके छू लेने को
आसमान.
आसमान.
3 comments:
wow very nice..happy new year2017
www.shayariimages2017.com
बहुत सुन्दर रचना ..
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!!
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