वे हमारे चारो ओर
बिखरी रहतीं हैं
सुगन्धि की तरह ,
सौंदर्य और मासूमियत के
एहसास की तरह ,
ईश्वर के होने की तरह।
जन्म के पूर्व ही
मिटा दिए जाने की
हमारी छुद्र साजिशों के बीच
वे ढीठ
उग आती हैं
हरी डूब की तरह
और न जाने कब बड़ी हो
हमें भर देती हैं
बडक्पन के एहसास से ,
उनकी उपस्थिति मात्र से
हम हो जाते हैं
सुसंस्कृत।
उनकी किलकारियों से
भर जाता है घर में
मौसमों का मंद कलरव।
और उनके गम-सुम होते ही
बोलने लगता है
घर का सन्नाटा भी।
वे मुस्कराहट बन
चिपकी रहती है
हर समय
कभी करा देती याद
नानी
और कभी ख़ुद
दादीमाँ बन
करती मजबूर हमें
फ़िर से बच्चा बन जाने को।
उम्र भर
परायी समझे जाने के बावजूद
भरी भरी आकंठ
अपनेपन से
ईश्वर के वरदान की तरह
वे हमारे लिए
दुनिया के हर कोने में
जल रही होती हैं
प्रार्थना हे दीपक की तरह।
Wednesday, October 15, 2008
Saturday, October 4, 2008
नदी जो कभी थी ...
नदी
देर तक इठलाती रहती
आलिन्गनबद्ध,
बातें करती
न जाने कितनी देर।
छोटी सी नाव में
हिचकोले लेती , निहारती
लहरों और चन्द्रमा की
लुकाछिपी।
नदी तब छेड़ देती
वाही पुराना गीत
जो बरसों से गाती हैं
'गवांर' औरतें ।
और गीत का नयापन भर देता
मन के कूल किनारों को
बांसुरी की तान से ।
तिरोहित हो जाता दाह
तन का, मन का।
बरसों बाद लौटा हूँ ।
साँझ ढले
खोजता निकल आया हूँ दूर,
न जाने कहाँ गुम है
वह छोटी नाव ।
सड़क और पुलों की भीड़ से डरी
नदी,
कहीं चली गई ।
किसी ने कहा -
कभी-कभी दिख जाती है
उसकी गंदलाई प्रतिछाया
बरसातों में।
लौट आता हूँ
एक लम्बी निःश्वास ले,
उलझ जाता हूँ फ़िर
अपने लैपटाप से ।
नदी अब शेष है
केवल
मेरी स्मृतियों के अजायबघर में।
देर तक इठलाती रहती
आलिन्गनबद्ध,
बातें करती
न जाने कितनी देर।
छोटी सी नाव में
हिचकोले लेती , निहारती
लहरों और चन्द्रमा की
लुकाछिपी।
नदी तब छेड़ देती
वाही पुराना गीत
जो बरसों से गाती हैं
'गवांर' औरतें ।
और गीत का नयापन भर देता
मन के कूल किनारों को
बांसुरी की तान से ।
तिरोहित हो जाता दाह
तन का, मन का।
बरसों बाद लौटा हूँ ।
साँझ ढले
खोजता निकल आया हूँ दूर,
न जाने कहाँ गुम है
वह छोटी नाव ।
सड़क और पुलों की भीड़ से डरी
नदी,
कहीं चली गई ।
किसी ने कहा -
कभी-कभी दिख जाती है
उसकी गंदलाई प्रतिछाया
बरसातों में।
लौट आता हूँ
एक लम्बी निःश्वास ले,
उलझ जाता हूँ फ़िर
अपने लैपटाप से ।
नदी अब शेष है
केवल
मेरी स्मृतियों के अजायबघर में।
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