नदी
देर तक इठलाती रहती
आलिन्गनबद्ध,
बातें करती
न जाने कितनी देर।
छोटी सी नाव में
हिचकोले लेती , निहारती
लहरों और चन्द्रमा की
लुकाछिपी।
नदी तब छेड़ देती
वाही पुराना गीत
जो बरसों से गाती हैं
'गवांर' औरतें ।
और गीत का नयापन भर देता
मन के कूल किनारों को
बांसुरी की तान से ।
तिरोहित हो जाता दाह
तन का, मन का।
बरसों बाद लौटा हूँ ।
साँझ ढले
खोजता निकल आया हूँ दूर,
न जाने कहाँ गुम है
वह छोटी नाव ।
सड़क और पुलों की भीड़ से डरी
नदी,
कहीं चली गई ।
किसी ने कहा -
कभी-कभी दिख जाती है
उसकी गंदलाई प्रतिछाया
बरसातों में।
लौट आता हूँ
एक लम्बी निःश्वास ले,
उलझ जाता हूँ फ़िर
अपने लैपटाप से ।
नदी अब शेष है
केवल
मेरी स्मृतियों के अजायबघर में।
8 comments:
लौट आता हूँ
एक लम्बी निःश्वास ले,
उलझ जाता हूँ फ़िर
अपने लैपटाप से ।
नदी अब शेष है
केवल
मेरी स्मृतियों के अजायबघर में।
bahut sunder
बहुत बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।
सड़क और पुलों की भीड़ से डरी
नदी,
कहीं चली गई ।
किसी ने कहा -
कभी-कभी दिख जाती है
उसकी गंदलाई प्रतिछाया
बरसातों में।
bahut bhavpurn sundar kavita badhai
एक अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद
वीनस केसरी
sunder rachna !
badhaii !
क्या बात है-वाह!! बहुत जबरदस्त!!
khoobsoorat kavita hai. accha laga padhna.
अद्भुत कविता!!!!नदी भले ही अब गुम हो गयी हो मगर आपकी स्मृतियों का अजायबघर अभी भी उसको संभल कर रख हुए है, यह बातप्रशंशनीय है|हम प्रार्थना करेंगे की आपकी यह स्मृतियाँ सिर्फ स्मृतियाँ न रह जायें|हम ये दुआ करेंगे की यह नदी एक बार फिर सेइस दुनिया को सुसज्जित करे|
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