कौए
सुना है
विलुप्त हो रहें है।
क्या सच ?
पर क्या रमेसर की माँ
अब नहीं उड़ाएगी
मुंडेर से कौए?
पति के शहर से
लौटने की प्रत्याशा में।
क्या अब
झूठ बोलने पर
काला कौआ नहीं काटेगा
अब
नहीं पढेंगे बच्चे
'क' से कौआ।
कहानी सुनाती नानी
कैसे समझायेगी
उन्हें कि
क्या होता है मतलब
रानी से कौआ-हंकनी
बन जाने का।
जब दिखेंगे ही नहीं
कौए
कौन लेगा पिंडदान
पितृपक्ष में
क्या रहेंगे पितर
भूखे ही।
नई दुनिया में
नहीं रहेंगी
चीजें
बदरंग पुरानी दुनिया की
और कौए भी ।
पर रोज गुजरते हुए
गाजीपुर मुर्गामंडी के करीब से
देखता हूँ
कूड़े के पहाड़ पर मंडराती
कौओं की विशाल सेना।
पुरानी दुनिया के लिए
नई दुनिया में
बची है जगह
शायद यही।
नई दुनिया के लिए
कौओं का गायब होना
बस्तियों से,
कोई घटना नहीं।
वैस भी
सिर्फ़ अपने लिए जीने के दौर में
हर अस्तित्व है जरूरी
तभी तक
जब तब है वह मेरे काम का-
अभी और इसी वक्त ।
तो फ़िर चलिए पढ़ते हैं आज
मर्सिया कौओं का
कल हमारी बारी होगी।
3 comments:
विचारणीय रचना...अच्छा लिखा है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बहुत गंभीर रचना.
सार्थक रचना !
आपको दीवाली की शुभकामनायें !!
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