Thursday, April 9, 2009

अशोक

दरवाजे पर का बूढ़ा अशोक
कहते हैं जिसे रोपा था
मेरे दादा ने,
खडा है अब भी,
अब जबकि
हमने बाँट ली है
उसके नीचे की एक एक पग धरती
घर, आंगन और
मन्दिर के देवता तक ।
खड़ा है वह अब भी
लुटाता हम पर अपनी छांह की आशीष ।

उसकी लचकती डालियाँ
बुलाती हैं अब भी
घसीट लो मचिया इधर ही,
आओ थोड़ी देर पढें
मुंशी जी का 'गोदान '
या गुरुदेव की 'गीतांजलि।'
या फ़िर आओ जमे
ताश की बाज़ी ही,
तब तक जब तक
दादी आकर फेंक न दें पत्ते
मीठी लताड़ के साथ।

पूर्वज
हम ज़रूर आते
बैठने तुम्हारी ठंडी छाँव में
पर नहीं लांघी जाती हमसे
हमारी ही खींची हुई
लक्ष्मण रेखाएं,
बाज़ार के दबाव से
कमज़ोर हुए हमारे पाँव
असमर्थ हैं पार कर पाने में
झूठे दंभ की ढूहों को।
सेंसेक्स के उतार चढाव में
धूल खा रहे हैं
प्रेमचंद और टैगोर
किसी पुरानी अलमारी के कोने में।

अब तो अगर कभी
वैश्वीकरण और बाज़ार से
,
मुक्त हुए ,
अगर मिली फुरसत बैठने की
फ़िर जिंदगी के साथ,
हम आयेंगे बैठने
फ़िर तुम्हारी छाया में।

1 comment:

हरकीरत ' हीर' said...

अब जबकि
हमने बाँट ली है
उसके नीचे की एक एक पग धरती
घर,आँगन और
मंदिर के देवता तक
खडा है वह अब भी
लुटाता हम पर अपनी छांह की आशीष

वाह बहुत खूब....!!

एस.बी. सिंह जी बहुत अच्छी लगी आपकी रचना गहरे और मर्मस्पर्शी भाव लिए........बहुत बहुत बधाई....!!