Friday, September 12, 2008

एक ग़ज़ल मेरे शहर के नाम

आख़िर बदइंतजामियों की कोई इन्तिहाँ तो हो।
मेरे शहर के हाल पर कोई तप्सरा तो हो।

गड्ढों में सड़क गुम हैं, सीवर उफ़ान पर,
हाकिम को इंतज़ार कोई हादसा तो हो।

बदलेगा ये निजाम भी हर दौर की तरह,
सीनों में आग, जेहन में कोई जलज़ला तो हो।

टकरा के टूट जायेगी शमशीर हो कोई,
पत्थर से हौसले हों, ख़ुद पे भरोसा तुझे तो हो।

तौबा तेरे ज़माल की जादूनिगारियाँ ,
क्या दूँ मिसाल तुझसा कोई दूसरा तो हो।

हमने भी जीना सीख लिया है तेरे बगैर,
आख़िर कहीं पे ख़त्म ऐ भी सिलसिला तो हो।

3 comments:

विवेक सिंह said...

पढ कर आनन्द आ गया . लिखते रहें . आभार !

फ़िरदौस ख़ान said...

बदलेगा ये निजाम भी हर दौर की तरह,
सीनों में आग, जेहन में कोई जलज़ला तो हो।

टकरा के टूट जायेगी शमशीर हो कोई,
पत्थर से हौसले हों, ख़ुद पे भरोसा तुझे तो हो।

बहुत ख़ूब....

श्रद्धा जैन said...

bhaut bahut sunder gazal
josh dilate hue alfaaz