Sunday, September 21, 2008

इन्द्र धनुष

मुंडेर से उतर कर
धूप
बरांडे के
दूर वाले छोर पर
अटक जाती है।
न जाने क्यों ?
घिर जाता है मन
एक उदास खामोशी से।

सुगन्धि का एक वलय
तैर जाता है
आंखों के आगे
यादों का इन्द्र धनुष
खिंच जाता है
मन के एक सिरे से
दूसरे सिरे तक।

एक बच्चा भागता है
कटी हुई पतंग के पीछे।
तितलियाँ सी उड़ती है
आंखों में,
लहरा उठता है
एक आँचल गुलाबी,
या फ़िर शायद धानी
............सुनहरा
सबकुछ गड्मड।
आँचल की एक कोर
फंसी रह गई है
मन के किसी कोने से।

टप
बारिस की एक बूँद
भिगो गई हथेली ।
घिर आया सावन
यादों का।
अपनी किताबें
किए सर के ऊपर
बारिस से बचने को
गुलमुहर तक चली आई
वह लड़की।
जब घूरते हुए उसे
बेवकूफों की तरह
पूछा था मैंने कुछ ऐसे ही।

कैफिटेरिया में उस दिन
ठंढ से कुड़मुड़ाते जब वह
पी गई थी बची हुई काफ़ी
मेरे प्याले की ,
अनजाने में या शायद
जानबूझ कर।
और फ़िर बिखर गई थी
हमारे चारो ओर
एक सिन्दूरी आभा।

स्मृतियों के सूत्र
खिसकने लगते हैं
मुट्ठी से ,
चाहे कितना कस कर पकडो।
जीवन पहुँच जाता है
कहीं से कहीं।

मुंडेर पर की धूप
कब की
बरांडे से सरकती
दूर चली गई है
उदासी की एक चादर
अपने पीछे छोड़ कर।

1 comment:

Udan Tashtari said...

आह्ह!! बहुत खूब!!