नंगापन
नया मंत्र है
सभ्यता का।
स्वतंत्रता और स्वच्छंदता
हैं गडमड।
विचार करना है पिछड़ापन
सोचना छोड़ो।
कपड़े उतार डालो
अपने नहीं तो दूसरों के।
नंगे हो जाओ
यही है आज की मांग।
नंगापन
विचार में,
भाषा में,
व्यवहार में
बाज़ार का ताकाज़ा है।
बाज़ार
जो नई सदी का देवता है।
जिसके दबाव में
हैरीपॉटर की काल्पनिक त्रासदी
और ब्रितानी स्पीयर्स के कौमार्य
की चर्चाओं के बीच
ख़बर नहीं बन पाती
भूख से
हजारों अफ्रीकन बच्चों की मौत।
भावनाएं बंधन हैं,
काट फेंको।
नंगे होकर ही
बिक सकोगे तुम,
माल की तरह।
संकोच छोड़ो ,
उतार डालो
अपनी आत्मा पर पड़ा
हर आवरण।
वास्तु बन जाओ।
स्वयं को तब्दील कर लो
केवल शरीर में।
मन और आत्मा की छोड़ो।
शरीर ही धुरी है पृथ्वी की
जो घूमती है
बाज़ार के चारो ओर,
सीख लो भूगोल का
यह अधुनातन सिद्धांत।
उद्दाम भोग के महायज्ञ में
होम कर दो स्वयं को।
इसी से होगा प्राप्त
आधुनिक निर्वाण।
जानवरों की चाहारदीवारी से निकल
मनुष्यता की चौखट तक
आने में लगे हों भले
हजारों साल।
बन जाने में पशु
लगेगा नहीं समय कुछ भी
सहस्त्राब्दियों के बंधन काट
हम हो जायेगे आधुनिक
चुटकियों में।
विचित्र है माया
बाज़ार की।
3 comments:
bilkul sahi ek khavat hai
nang bade parmeshwar se
आपके भाव बहुत सुंदर हैं .....लाजवाब लिखा है....
बिल्कुल सत्य वचन कहा है आपने
आज की आधुनिकता में लोगों को मेले में केवल दिखती है रंग बिरंगी रौशनी नही दीखता है तो बस वो छोटा सा बच्चा जो फुटपाथ के किनारे ठेलिया पर खिलौने सज़ा कर बैठा है
आपकी कविता ने एक सच को नग्न कर दिया
वीनस केसरी
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