Tuesday, July 21, 2009

कौए

कौए
सुना है
विलुप्त हो रहें है।
क्या सच ?
पर क्या रमेसर की माँ
अब नहीं उड़ाएगी
मुंडेर से कौए?
पति के शहर से
लौटने की प्रत्याशा में।

क्या अब
झूठ बोलने पर
काला कौआ नहीं काटेगा
अब
नहीं पढेंगे बच्चे
'क' से कौआ।
कहानी सुनाती नानी
कैसे समझायेगी
उन्हें कि
क्या होता है मतलब
रानी से कौआ-हंकनी
बन जाने का।
जब दिखेंगे ही नहीं
कौए
कौन लेगा पिंडदान
पितृपक्ष में
क्या रहेंगे पितर
भूखे ही।
नई दुनिया में
नहीं रहेंगी
चीजें
बदरंग पुरानी दुनिया की
और कौए भी ।
पर रोज गुजरते हुए
गाजीपुर मुर्गामंडी के करीब से
देखता हूँ
कूड़े के पहाड़ पर मंडराती
कौओं की विशाल सेना।
पुरानी दुनिया के लिए
नई दुनिया में
बची है जगह
शायद यही।
नई दुनिया के लिए
कौओं का गायब होना
बस्तियों से,
कोई घटना नहीं।
वैस भी
सिर्फ़ अपने लिए जीने के दौर में
हर अस्तित्व है जरूरी
तभी तक
जब तब है वह मेरे काम का-
अभी और इसी वक्त ।
तो फ़िर चलिए पढ़ते हैं आज
मर्सिया कौओं का
कल हमारी बारी होगी।

Thursday, April 9, 2009

अशोक

दरवाजे पर का बूढ़ा अशोक
कहते हैं जिसे रोपा था
मेरे दादा ने,
खडा है अब भी,
अब जबकि
हमने बाँट ली है
उसके नीचे की एक एक पग धरती
घर, आंगन और
मन्दिर के देवता तक ।
खड़ा है वह अब भी
लुटाता हम पर अपनी छांह की आशीष ।

उसकी लचकती डालियाँ
बुलाती हैं अब भी
घसीट लो मचिया इधर ही,
आओ थोड़ी देर पढें
मुंशी जी का 'गोदान '
या गुरुदेव की 'गीतांजलि।'
या फ़िर आओ जमे
ताश की बाज़ी ही,
तब तक जब तक
दादी आकर फेंक न दें पत्ते
मीठी लताड़ के साथ।

पूर्वज
हम ज़रूर आते
बैठने तुम्हारी ठंडी छाँव में
पर नहीं लांघी जाती हमसे
हमारी ही खींची हुई
लक्ष्मण रेखाएं,
बाज़ार के दबाव से
कमज़ोर हुए हमारे पाँव
असमर्थ हैं पार कर पाने में
झूठे दंभ की ढूहों को।
सेंसेक्स के उतार चढाव में
धूल खा रहे हैं
प्रेमचंद और टैगोर
किसी पुरानी अलमारी के कोने में।

अब तो अगर कभी
वैश्वीकरण और बाज़ार से
,
मुक्त हुए ,
अगर मिली फुरसत बैठने की
फ़िर जिंदगी के साथ,
हम आयेंगे बैठने
फ़िर तुम्हारी छाया में।

Saturday, March 28, 2009

तुम फ़िर आना .....

तुम फ़िर आना
हम फ़िर बैठेंगे चल कर
जमुना की ठंडी रेत पर
और करेंगे बातें
देर तक
कविता की,
कहानियों की
और तितलियों की तरह
उड़ती फिरती लड़कियों की।

तुम फ़िर आना
मौसम के बदलने की तरह
हम फ़िर बैठेंगे चल कर
कंपनी बाग़ की
किसी टूटी बेंच पर
हरियाली की उस उजड़ रही
दुनिया के बीच
देर तक महकता रहेगा गुलाब
हमारे भीतर और बाहर।

तुम फ़िर आना
हम फ़िर बैठेंगे चल कर
कालेज की कैंटीन में
समोसे की सोंधी खुशबू के बीच
ठंडी चाय पीते
देर तक करेंगे गरमागरम बहस
राजनीति पर, अर्थनीति पर
और मन ही मन जोडेंगे हिसाब
कैसे चलेगा खर्च
बाबू के मनीआर्डर के आने तक।

तुम फ़िर आना।

Wednesday, January 14, 2009

कविता के बहाने

वातानुकूलित कमरों की
बासी शीतलता में
जो जन्म लेती है
काफ़ी के प्यालों में,
आकर ग्रहण करती है
सिगरेट के धुएँ से
कविता नहीं

कविता वह नहीं
जिसका शव प्रकाशन के पश्चात
समीक्षक की मेज पर पड़ा है
पोस्ट मार्टम की प्रतीक्षा में ।

कविता तो लिखता है
वह बूढा
हल की नोक से
धरती की छाती पर
उसकी आँखों में झिलमिल है
पीड़ा का महाकाव्य
उसके खुरदुरे हाथों पर अंकित है
जीवन संधर्ष की गौरव गाथा ।

धान रोपते हाथों का मंत्र सुनो
ढोर चराते नन्हे बालक
क्या किसी कविता की पंक्ति नही लगते ।
मित्र
कविता
किसी रूपसी के पायल की रुनझुन नहीं
तपती दोपहरी में
पत्थर की शिलाओं पर पड़ती
हथौडे की टंकार है
दबी कुचली उन्गलिओं से टपकता
लहू है ।

कविता
किसी सीजेरियन बच्चे के जन्म का
चिकित्सकीय अभिलेख नहीं
प्रसव की वेदना का इतिहास है ।

कविता
सामाजिक जानवर के
मनुष्य बनने का
दस्तावेज़ है
अनुभूतियों की यात्राकथा पर
समय का हस्ताक्षर है।

(पुनर्प्रस्तुति)