हर साल
गर्मियां शुरू होते ही
नानी लटका देती थी
मुंडेर से
मिट्टी की हंडिया
भर कर जल से।
नहीं भूलती थी
डालना रोज पानी
हंडिया में
शालिग्राम का भोग लगाने के पश्चात,
संभवतः
यह भी था एक हिस्सा
उनकी पूजा का।
उनको था विश्वास
की गौरैयों के रूप में
आते हैं
प्यासे पूर्वज
और चोंच भर पानी से हो तृप्त
कर जाते है हम पर
आशीष की वर्षा ।
हम बच्चों के लिए
यह था एक कौतुहल
अनेक प्रश्नों के साथ
होते हम प्रतीक्षारत रोज
इस अनुष्ठान के लिए ।
और एक दिन
नानी नहीं रहीं ।
वे भी किसी दिन
अब
आतीं होंगी
हमारी मुंडेर तक
शामिल गौरैयों के झुंड में
तलाश में जल की
और दे जाती होंगी
ढेर सारा आशीष ।
पुत्र !
पात्र को
रीता न होने देना
हम भी आयें शायद
एक दिन तुम्हारी मुंडेर तक
गौरैयों के झुंड में।
Thursday, August 28, 2008
Wednesday, August 27, 2008
दंगा
न जाने कब
गरमा उठती है
पुरवैया,
धुप की मखमली उजास
न जाने कब
बदल जाती है
आग की पगडंडी में
उबलने लगती है
नदी
पिघल कर बह उठते है किनारे
उत्तप्त हो लावा की तरह।
लहू की एक अग्निरेखा
प्रवेश कर जाती है
आत्मा की गहराइयों तक।
और तब जब
सारा उन्माद थम जाता है
बदल जाता है बदबूदार कीचड़ में।
नरमुंडों के ढेर पर बैठे हम
गिन रहे होते है लाशें,
पीट रहे होते हैं छातियाँ ।
पर
मार-काट का सारा शोर
थम जाने के बाद भी
थर्रा रहे कान के परदों पर
हथेलियाँ रख लेने से
नहीं थमता
भीतर का कोलाहल,
मात्र संवेदना के आसुओं से
नहीं मिटता
अंतर्दाह।
तलवारों पर से
रक्त पोंछ लेने भर से
नहीं भर जाते
छाती के घाव।
गरमा उठती है
पुरवैया,
धुप की मखमली उजास
न जाने कब
बदल जाती है
आग की पगडंडी में
उबलने लगती है
नदी
पिघल कर बह उठते है किनारे
उत्तप्त हो लावा की तरह।
लहू की एक अग्निरेखा
प्रवेश कर जाती है
आत्मा की गहराइयों तक।
और तब जब
सारा उन्माद थम जाता है
बदल जाता है बदबूदार कीचड़ में।
नरमुंडों के ढेर पर बैठे हम
गिन रहे होते है लाशें,
पीट रहे होते हैं छातियाँ ।
पर
मार-काट का सारा शोर
थम जाने के बाद भी
थर्रा रहे कान के परदों पर
हथेलियाँ रख लेने से
नहीं थमता
भीतर का कोलाहल,
मात्र संवेदना के आसुओं से
नहीं मिटता
अंतर्दाह।
तलवारों पर से
रक्त पोंछ लेने भर से
नहीं भर जाते
छाती के घाव।
Monday, August 25, 2008
युध्द
जब भी तुम
मौन रहोगे
अन्याय के प्रतिकार में ,
अपनी आत्मचेतना के बिरुद्ध
रुक जाओगे
राजसत्ता के पायों से बाँध कर ।
होगे तुम उपहास के पात्र मात्र।
महारथी
जब जब तुम होगे
अन्याय के साथ,
अपनी वैभवपूर्ण वीरता के
भग्नावशेषों पर खड़े
जब तुम लड़ रहे होगे
अन्तिम निर्णायक युद्ध
पाओगे स्वयं को अकेला ही
तुम्हारा सारथी तक
होगा तुम्हाए विरुद्ध।
अनाचार का साथ देते
खोखले हो चुके
तुम्हारे बाजुओं का समस्त बल
अपर्याप्त होगा
निकाल पाने को
तुम्हारे रथ के पहिये
दुर्भाग्य की कीचड़ से।
अब क्या शोक की
पार्थ ने बींध डाली
तुम्हारी चौडी छाती
तुम्हारे निहत्था रहते
वासुदेव की उपस्थिति में।
यह तो प्रतिफल था
अन्याय के साथ का,
सत्य के प्रतिरोध का।
मित्र
समय कर देता है
सारे हिसाब बराबर।
युद्ध धर्म तो है
किंतु तभी
जब तुम्हारी प्रत्यंचा चढ़े
सत्य के पक्ष में
अन्याय के प्रतिकार में।
पराजय व्यक्ति का अंत भले हो
विचार का अंत नही ।
और विजय युद्ध का प्राप्य नहीं
परिणाम भले हो।
याद रखो
जीवन का उत्सर्ग
युद्ध नही
मूल्यों की पुनर्स्थापना का
यज्ञ है।
मौन रहोगे
अन्याय के प्रतिकार में ,
अपनी आत्मचेतना के बिरुद्ध
रुक जाओगे
राजसत्ता के पायों से बाँध कर ।
होगे तुम उपहास के पात्र मात्र।
महारथी
जब जब तुम होगे
अन्याय के साथ,
अपनी वैभवपूर्ण वीरता के
भग्नावशेषों पर खड़े
जब तुम लड़ रहे होगे
अन्तिम निर्णायक युद्ध
पाओगे स्वयं को अकेला ही
तुम्हारा सारथी तक
होगा तुम्हाए विरुद्ध।
अनाचार का साथ देते
खोखले हो चुके
तुम्हारे बाजुओं का समस्त बल
अपर्याप्त होगा
निकाल पाने को
तुम्हारे रथ के पहिये
दुर्भाग्य की कीचड़ से।
अब क्या शोक की
पार्थ ने बींध डाली
तुम्हारी चौडी छाती
तुम्हारे निहत्था रहते
वासुदेव की उपस्थिति में।
यह तो प्रतिफल था
अन्याय के साथ का,
सत्य के प्रतिरोध का।
मित्र
समय कर देता है
सारे हिसाब बराबर।
युद्ध धर्म तो है
किंतु तभी
जब तुम्हारी प्रत्यंचा चढ़े
सत्य के पक्ष में
अन्याय के प्रतिकार में।
पराजय व्यक्ति का अंत भले हो
विचार का अंत नही ।
और विजय युद्ध का प्राप्य नहीं
परिणाम भले हो।
याद रखो
जीवन का उत्सर्ग
युद्ध नही
मूल्यों की पुनर्स्थापना का
यज्ञ है।
Wednesday, August 13, 2008
पत्थर
१-
छूकर जिसे अपने माथे से
बना दिया मैने ईश्वर,
उसी पत्थर की जद में है
आज मेरा सर।
२-
पत्थरों का घर
बनाने वालों की किस्मत में
होते नहीं
घर पत्थर के।
३-
लगे तो थे पत्थर
हम दोनों को ही
पर शायद मेरे माथे पर पड़ा था
और उसकी अक्ल पर।
४-
खोट विधाता
तेरी रचना में
शरीर मिट्टी का
संवेदनाए पत्थर की।
छूकर जिसे अपने माथे से
बना दिया मैने ईश्वर,
उसी पत्थर की जद में है
आज मेरा सर।
२-
पत्थरों का घर
बनाने वालों की किस्मत में
होते नहीं
घर पत्थर के।
३-
लगे तो थे पत्थर
हम दोनों को ही
पर शायद मेरे माथे पर पड़ा था
और उसकी अक्ल पर।
४-
खोट विधाता
तेरी रचना में
शरीर मिट्टी का
संवेदनाए पत्थर की।
Sunday, August 10, 2008
अक्स
तमाम उम्र सितारों का तलबगार रहा,
हरेक शख्स ख्वाहिसात का शिकार रहा।
हुस्न की धूप ढली जिस्म के मौसम बदले,
आइना कितने हादसों का हमकिनार रहा।
उसे ही आया नहीं मेरी वफाओं का यकीन,
मुझे तो उसकी ज़फाओं का ऐतबार रहा।
तुम्हारी याद के रंगों का खुशबुओं का वजूद,
तमाम रात मेरे साथ मिस्ल-ऐ -यार रहा।
मेरी ही शक्ल का एक शख्स, मेरा हमनाम
मेरे ग़मों का गुनाहों का राजदार रहा।
हरेक शख्स ख्वाहिसात का शिकार रहा।
हुस्न की धूप ढली जिस्म के मौसम बदले,
आइना कितने हादसों का हमकिनार रहा।
उसे ही आया नहीं मेरी वफाओं का यकीन,
मुझे तो उसकी ज़फाओं का ऐतबार रहा।
तुम्हारी याद के रंगों का खुशबुओं का वजूद,
तमाम रात मेरे साथ मिस्ल-ऐ -यार रहा।
मेरी ही शक्ल का एक शख्स, मेरा हमनाम
मेरे ग़मों का गुनाहों का राजदार रहा।
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