न जाने कब
गरमा उठती है
पुरवैया,
धुप की मखमली उजास
न जाने कब
बदल जाती है
आग की पगडंडी में
उबलने लगती है
नदी
पिघल कर बह उठते है किनारे
उत्तप्त हो लावा की तरह।
लहू की एक अग्निरेखा
प्रवेश कर जाती है
आत्मा की गहराइयों तक।
और तब जब
सारा उन्माद थम जाता है
बदल जाता है बदबूदार कीचड़ में।
नरमुंडों के ढेर पर बैठे हम
गिन रहे होते है लाशें,
पीट रहे होते हैं छातियाँ ।
पर
मार-काट का सारा शोर
थम जाने के बाद भी
थर्रा रहे कान के परदों पर
हथेलियाँ रख लेने से
नहीं थमता
भीतर का कोलाहल,
मात्र संवेदना के आसुओं से
नहीं मिटता
अंतर्दाह।
तलवारों पर से
रक्त पोंछ लेने भर से
नहीं भर जाते
छाती के घाव।
4 comments:
बेहतरीन..
Badh kee trasdee ko behad achche shabdon me wyakt kiya hai aapne.
कवियो के लिए
अपनी कलम को हथियार बना
शब्दों में बारूद भरे
सोया समाज राख समान
उसमे कुछ आग लगे
ज्योती को भड़का कर
क्रांती जवाला प्रजवलित करे
कवियो तुम समाज सुधारक
नहीं तुम विदूषक निरे
समय आ गया संघर्षो का
आओ तुम नेतृत्व करो
हास्य -परिहास श्रृंगार को
कुछ दिन को विश्राम दो
लोकतेंत्र के तीनो स्तम्भ
अपने आप ही हिल रहे
अनजाने भय के कारण
समाज भी है डरे हुऐ
सुबिधाओ की बहुतायत में
गुलामी की ओर बहे
रोकना होगा इस धारा को
डट के चट्टानों की तरह
yah kavita hai mera vichaar DHEERU SINGH
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