रात के चौथे पहर
अंधेरे में
तन कर खड़ा वह पेड़ ,
यौवन से आप्लावित
मानो प्रतीक्षा में
प्रेयसी की।
निर्भीक , निश्चिंत
हवा के झोकों संग हिलता
न हो उतरा नशा
मानो अभी तक
रात की मदिरा का।
मद्धम चाँदनी में
पत्तियों पर चमक रहीं
बारिष की हीरक बूँदें ,
श्रम के स्वेदबिंदु।
उषा के साथ
आएगी पहली किरण
लिपट जाएगी उसके अंग-अंग से।
महक उठेगी
उसे छू कर
प्रात समीर।
उजाला उसके स्पर्श से
हो जाएगा
मुलायम, मखमली।
मेरी खिड़की से झाँक
उसकी टहनी
फ़िर टोकेगी मुझे
की उठो !
आगया एक और प्रभात
जीवन में।
चलता रहेगा यह क्रम
निरंतर
खिड़की के पास वाला पेड़
लुटाता रहेगा स्नेह
हम पर अनवरत।
दुआ करो
बचा रहे उसका अस्तित्व
हमारी दिन-ब-दिन वृद्धिमान
लालसा की कुल्हाड़ी से।
6 comments:
एक अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद
वीनस केसरी
दुआ करो
बचा रहे उसका अस्तित्व
हमारी दिन-ब-दिन वृद्धिमान
लालसा की कुल्हाड़ी से।
सुंदर अभिव्यक्ति ...बधाई
दुआ करो
बचा रहे उसका अस्तित्व
हमारी दिन-ब-दिन वृद्धिमान
लालसा की कुल्हाड़ी से।
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सुन्दर रचना!! पर्यावरण की रक्षा की दुआ तो होनी ही चाहिये वरना विनाश सुनिश्चित है.
smvedan sheel rchna .
badhaii!
पेड हरे भरे रहेँ
पर्यावरण प्रदूषित ना हो
यही कामना है
और चित्र भी सुँदर है
और कविता भी ...
- लावण्या
Let us all be as sensitive as you to all things around us, both animate as well as inanimate.
Fantastic expression and use of metaphor.
Harish
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