Tuesday, September 30, 2008

खिड़की के पास वाला पेड़

रात के चौथे पहर
अंधेरे में
तन कर खड़ा वह पेड़ ,
यौवन से आप्लावित
मानो प्रतीक्षा में
प्रेयसी की।
निर्भीक , निश्चिंत
हवा के झोकों संग हिलता
न हो उतरा नशा
मानो अभी तक
रात की मदिरा का।
मद्धम चाँदनी में
पत्तियों पर चमक रहीं
बारिष की हीरक बूँदें ,
श्रम के स्वेदबिंदु।
उषा के साथ
आएगी पहली किरण
लिपट जाएगी उसके अंग-अंग से।
महक उठेगी
उसे छू कर
प्रात समीर।
उजाला उसके स्पर्श से
हो जाएगा
मुलायम, मखमली।
मेरी खिड़की से झाँक
उसकी टहनी
फ़िर टोकेगी मुझे
की उठो !
आगया एक और प्रभात
जीवन में।
चलता रहेगा यह क्रम
निरंतर
खिड़की के पास वाला पेड़
लुटाता रहेगा स्नेह
हम पर अनवरत।
दुआ करो
बचा रहे उसका अस्तित्व
हमारी दिन-ब-दिन वृद्धिमान
लालसा की कुल्हाड़ी से।

6 comments:

वीनस केसरी said...

एक अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद


वीनस केसरी

Reetesh Gupta said...

दुआ करो
बचा रहे उसका अस्तित्व
हमारी दिन-ब-दिन वृद्धिमान
लालसा की कुल्हाड़ी से।

सुंदर अभिव्यक्ति ...बधाई

Udan Tashtari said...

दुआ करो
बचा रहे उसका अस्तित्व
हमारी दिन-ब-दिन वृद्धिमान
लालसा की कुल्हाड़ी से।

-
सुन्दर रचना!! पर्यावरण की रक्षा की दुआ तो होनी ही चाहिये वरना विनाश सुनिश्चित है.

Abhivyakti said...

smvedan sheel rchna .
badhaii!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

पेड हरे भरे रहेँ
पर्यावरण प्रदूषित ना हो
यही कामना है
और चित्र भी सुँदर है
और कविता भी ...
- लावण्या

haria420 said...

Let us all be as sensitive as you to all things around us, both animate as well as inanimate.

Fantastic expression and use of metaphor.

Harish